Sunday, July 3, 2011

क्लिनिकल ट्रायल या क्लीनिकल रिसर्च

कुछ दिनों से क्लिनिकल ट्रायल या क्लीनिकल रिसर्च उद्योग का विषय चर्चा में है।आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में पिडुगुराला कस्बे में एक औषधि कंपनी द्वारा गरीब महिलाओं को इलाज के बहाने हैदराबाद ले जाया गया,दवा दी गई और रक्त के नमूने लिए गए।दवा लेने के थोड़ी ही देर में महिलाओं को सिरदर्द, पैरों में सूजन और सांस लेने में कठिनाई जैसी तकलीफ होने लगी। पीडि़तों को 1500 से 9000 रुपये तक भुगतान किये गये।कंपनी ने क्लिनिकल ट्रायल के एथिक नियमों का उल्लंघन कर गरीब,ग्रामीण,महिलाओं पर बिना अनुमति के परीक्षण किये।मामला सरकार,प्रशासन और स्वास्थ्य अधिकारी, मानवाधिकार आयोग के सम्मुख है।

इस लेख में ट्रायल संबधी भ्राँतियाँ दूर करने के लिये इस व्यवसाय की सरसरी तौर पर संक्षिप्त जानकारी दी जा रही है,जैसे भारत में ही रोगियों पर क्लीनिकल ट्रायल क्यों किया जाता है? क्लीनिकल ट्रायल के क्या नियम हैं?क्या रोगी का गिनीपिग जैसा प्रयोग होता है?क्लीनिकल ट्रायल में रोगी को क्या अधिकार है?क्लीनिकल ट्रायल से क्या लाभ हो सकता है?

भारत में वर्तमान क्लीनिकल रिसर्च उद्योग एक दशक पुराना है। पिछले तीन चार वर्षों में इस व्यवसाय ने बहुत प्रगति की है। पश्चिमीय देशों में क्लीनिकल रिसर्च नई नहीं है।आधुनिक चिकित्सक की प्रैक्टिस को मेडिकल प्रैक्टिस कहा जाता है,जबकि क्लिनिकल ट्रायल या क्लीनिकल रिसर्च को क्लीनिकल प्रैक्टिस कहा जाता है।

क्लिनिकल ट्रायल का आधुनिक इतिहास है। आज क्लिनिकल रिसर्च के परिदृश्य में बहुत बदलाव आ गया है।द्वितीय विश्व में नाज़ियों द्वारा कैदियों पर अत्याचार कर उन पर ज़बरन क्लिनिकल रिसर्च किया गया।इसके बाद क्लिनिकल ट्रायल के लिये न्यूरंबर्ग कोड की संरचना की गई। उसके बाद हेलिसिंकी डिक्लेरेशन में रोगी के अधिकारों को सुरक्षित किया गया। हमारे देश में गुड क्लिनिकल प्रैक्टिस (जीसीपी) और फिर शेड्यूल वाय अधिनियम आया। अब क्लीनिकल ट्रायल रिसर्च के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप और जापान के नेतृत्व में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (इन्टरनेशनल कॉन्फरेन्स ऑन हार्मोनाइजेशन - आईसीएच) द्वारा निर्धारित दिशा निर्देशों का पालन कर किया जाता है। इसे आईसीएच-जीसीपी कहा जाता है।

भारत में इतना क्या खास है?

भारत में क्लीनिकल रिसर्च उद्योग तेजी से बढ़ रहा है। पिछले 3 वर्षों के दौरान यह उद्योग 20 करोड़ रुपए से 100 करोड़ रुपए बढ़ गया है। मार्केट अनुसंधान फर्म आरएनसीओएस की गई एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में 2010-2012 के दौरान क्लीनिकल रिसर्च की आउटसोर्सिंग में वार्षिक वृद्धि 30% बढ़कर लगभग $ 600 मिलियन तक बढ़ सकता है। अंतरराष्ट्रीय एजेन्सी अर्न्स्ट एंड यंग और वाणिज्य और उद्योग के इंडियन चैंबर्स संघ - फैप्सी द्वारा किये गये एक संयुक्त अध्ययन के अनुसार भारत में तीसरे चरण के क्लीनिकल रिसर्च 7% से अधिक और द्वितीय चरण के क्लीनिकल रिसर्च 3.2% किये जा रहे हैं। भारत में क्लीनिकल रिसर्च के बढने के कुछ कारण इस प्रकार हैं -

भारत में रोगी और चिकित्सक का अनुपात अधिक है।चिकित्सा के क्षेत्र में प्रशिक्षित, योग्य और समर्पित वैज्ञानिक और क्लिनिकल अनुसंधान पेशेवरों का एक बड़ी संख्या है।सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में भारत अपनी कुशलता के जाना जाता है।भारतीयों में आनुवंशिकता,सांस्कृतिक और सामाजिक आर्थिक रूप में विविधता है।भारतीयों के समकक्ष कोकेशियान की तुलना में एशियाइयों में दवाओं की अलग तरह से प्रतिक्रिया देखी गई है।विश्व की जनसंख्या का लगभग15% भारतीय हैं।आबादी के आधार भारतीय1अरब से अधिक की आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं।भारत में कैंसर और मधुमेह जैसे रोगियों की बहुलता है।भारत में उष्णकटिबंधीय संक्रमण से लेकर अपक्षयी रोगों की एक विस्तृत विविधता है।भारतीयों के बीच शिक्षा और संचार की प्राथमिक भाषा अंग्रेजी है।इन कई विशिष्ट कारणों से आज भारत वैश्विक चिकित्सीय ट्रायल के लिए पसंदीदा गंतव्य बन गया है।

क्लिनिकल ट्रायल क्या है?

क्लिनिकल ट्रायल चिकित्सा की प्रक्रियाओं और दवाओं की सुरक्षा और प्रभावशीलता का मूल्यांकन के लिये अनुसंधान अध्ययन किया जाता है। चिकित्सा,उपकरण या कोई नई प्रक्रिया किसी के लिये भी एक क्लिनिकल ट्रायल किया जा सकता है। क्लिनिकल ट्रायल रोगियों की मदद,रोग या अवस्था का प्रभावी उपचार और नए और बेहतर तरीके खोजने या अधिक प्रभावी और बेहतर सहनीय उपचार, वर्तमान उपलब्ध उपचार के एक नये प्रयोग की खोज, विशिष्ट वैज्ञानिक शंकाओं के समाधान ढूँढने के लिए किया जाता है।

क्लिनिकल ट्रायल के चार चरण

क्लिनिकल ट्रायल परीक्षण चार चरणों में किया जाता है। इसके प्रथम चरण, द्वितीय चरण, तीसरे चरण और चतुर्थ - चार चरण होते हैं। इन चार चरणों में अलग चिकित्सीय परीक्षण किये जाते हैं। आम तौर पूरी प्रक्रिया में आठ से दस साल तक लग सकते हैं।

पहले चरण के क्लिनिकल ट्रायल में औषधि का परीक्षण 20 से 100 स्वस्थ स्वयंसेवक मनुष्यों पर किया जाता है। रोगी के लिए ट्रायल की समयावधि अलग अलग होती है। प्रथम चरण क्लिनिकल ट्रायल में दवाओं की सुरक्षा और मात्रा की सहनशीलता का आकलन किया जाता है। प्रथम चरण में दवा की सुरक्षा निर्धारित की जाने पर द्वितीय चरण का क्लिनिकल ट्रायल स्वयंसेवकों के बड़े समूहों पर किया जाता है।

द्वितीय चरण 300 से अधिक स्वयंसेवक रोगियों में किया जाता है। इस चरण में दवा की प्रभावकारिता और विषाक्तता, उपचार की सुरक्षा और दवा की आवश्यक मात्रा का आकलन किया जाता है। द्वितीय चरण क्लिनिकल ट्रायल को पूरा करने के लिए कई साल तक लग सकते हैं।

तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल में दवा की प्रभावकारिता और दुष्प्रभाव को मॉनिटर करने के लिए किया जाता है। कई परीक्षण केन्द्रों पर 300 से 3000 लक्षित हालत से पीड़ित रोगियों के बड़े समूहों में लंबे समय यानि दो से पांच साल तक अनुसंधान किया जाता है। इसकी प्रक्रिया अन्य चरणों की अपेक्षा स्वाभाविक रूप से अधिक कठिन है। तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल में एक मौजूदा उपचार या प्लेसिबो के साथ तुलना में सुरक्षा, प्रभाव उत्पादकता और दवाओं की मात्रा का परीक्षण किया जाता है। तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल के दौरान अधिक लाभकारी प्रभाव प्रदान करने वाली निर्धारित मात्रा का स्तर का अध्ययन किया जाता है। अध्ययन के इस चरण में रोग के विभिन्न स्तरों के लिए दवा की प्रभावशीलता निर्धारित की जाती है।

चतुर्थ चरण अनुसंधान में लोगों के एक बड़े समूह के लिए एक विस्तारित समय अवधि में दवाओं के दीर्घकालिक उपयोग प्रभाव की जांच की जाती है। चतुर्थ चरण के अध्ययन लगातार नई दवाओं विपणन के बारे में अधिक जानकारी खोजने के लिए किया जाता है। चतुर्थ चरण क्लिनिकल ट्रायल में रोगी आमतौर पर पर्यवेक्षण के अधीन रहते हैं। चतुर्थ चरण अनुसंधान सामान्यतः चिकित्सक के कार्यालय में किया जाता है, जहां रोगियों को नियमित चिकित्सा देखभाल प्राप्त होती है और नुस्खे दिये जाते हैं। चतुर्थ चरण क्लिनिकल ट्रायल के अध्ययन के बाद दवा की आगे की रूपरेखा, इससे होने वाले लाभ और जोखिम और अधिक जानकारी खोजने के बाद अमेरीकी औषधि प्राधिकरण - एफडीए द्वारा दवा निर्माता को दवा की बिक्री की मंजूरी दी जाती है।

भारत में क्लीनिकल ट्रायल के लिये नियामकता

किसी निष्कर्ष से पहले क्लीनिकल रिसर्च के लाभों और उससे संबधी नियमों की जानकारी और उनको समझना सार्थक होगा। भारत के ड्रग्स महानियंत्रक (डीसीजीआई) भारत में किसी भी क्लीनिकल रिसर्च की मंजूरी के लिए जिम्मेदार है। डीसीजीआई की मंजूरी के बिना किसी प्रकार का क्लिनिकल ट्रायल भारत में नहीं किया जा सकता है। आमतौर पर भारत में मंजूरी के लिये 3 महीने लगते हैं। बाहरी सलाह के लिए डीसीजीआई कार्यालय विशेषज्ञ और अन्य सरकारी एजेंसियों पर निर्भर करता है। औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम की अनुसूची वाय में 2005 में संशोधन किया गया। पहले विदेशी ट्रायल्स के नीचे के एक चरण ही भारत में किये जा सकते थे। अब वैश्विक क्लीनिकल ट्रायल समानांतर रूप से भारत में भी किये जाना संभव है।

क्लिनिकल ट्रायल में भाग लेने के लिए अध्ययन विषय/ रोगी के अधिकारों की पूरी सुरक्षा की जाती है। जांच और दवा और मुफ्त चिकित्सा देखभाल की जाती है। स्वेच्छा से एक सूचित सहमति पर हस्ताक्षर करने के बाद ट्रायल किया जाता है। ट्रायल में भाग लेने के बाद भी ट्रायल जारी रखने के लिए कोई भी बंधन नहीं होता है। रोगी अपनी सहमति को किसी भी समय वापस ले सकता है। स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए लगातार ध्यान कर अग्रणी परामर्श किया जाता है। भारत देश में क्लिनिकल ट्रायल की देखरेख और मंजूरी के लिये शीर्षस्थ नियामक संस्थान इस प्रकार हैं-

डीसीजीआई- ड्रग कन्ट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (औषधि नियंत्रक) भारत की सरकार द्वारा सभी क्लिनिकल ट्रायल का नियंत्रण किया जाता है।

आईसीएमआर – (भारतीय मेडिकल रिसर्च परिषद) यह सर्वोच्च संस्था,जैव चिकित्सा और अनुसंधान को समन्वय कराती है। जीईएसी – (जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी) यह अनुमोदन समिति जेनेटिक इंजीनियरिंग, जीव विज्ञान, क्लिनिकल जैव प्रौद्योगिकी उत्पादों के इस्तेमाल और आणविक के क्षेत्र में क्लिनिकल ट्रायल का अनुमोदन करती है। जीईएसी डीसीजीआई द्वारा दिये गये दिशा निदेशों पर काम करती है।

डीबीटी विभाग – (जैवप्रौद्योगिकी विभाग) भारत में जीव विज्ञान जैव प्रौद्योगिकी विकास के लिए आधुनिक क्षेत्र की नई प्रेरणा की देखरेख करता है।

एईआरबी – (परमाणु ऊर्जा समीक्षा बोर्ड) यह प्राधिकरण नए प्रकार के विकिरण उपकरण, निरीक्षण और अनुमोदन विनियामक नियंत्रण, प्रतिष्ठानों के लिए विकिरण उपकरणों के पंजीकरण करता है।

बीएआरसी – (भाभा एटॉमिक अनुसंधान केन्द्र) यह सर्वोच्च संस्थान भारत में सभी विकिरण से संबंधित परियोजनाओं की मंजूरी देता है और देखरेख करता है। डीसीजीआई सभी क्लिनिकल ट्रायल्स में रेडियो फार्मेस्यूटिकल के लिए भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र की विशेषज्ञ राय लेता है।

डीसीसी – (औषध परामर्शदाता समिति) केन्द्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन तकनीकी मार्गदर्शन प्रदान करता है।

सीडीएल – (केन्द्रीय औषध प्रयोगशाला) दवाओं की नियंत्रण के लिए भारत सरकार की राष्ट्रीय गुणवत्ता सांविधिक प्रयोगशाला है।

सीएलएए – (सेंट्रल लाइसेंस प्राधिकरण) सीडीएससीओ के अन्तर्गत दवाओं के विनिर्माण लाइसेंस के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करता है।

डीटीएबी – (ड्रग्स तकनीकी सलाहकार बोर्ड) सीडीएससीओ को तकनीकी मार्गदर्शन देता है।

संस्थागत एथिक कमेटी (आईईसी) और इसकी भूमिका

क्लिनिकल रिसर्च का एथिकल कमेटी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।मेडिकल रिसर्च की भारतीय परिषद(आईसीएमआर) द्वारा चिकित्सीय ट्रायल के लिए दिये गये के दिशा निर्देशों में एथिकल कमेटी को संस्थागत स्तर पर स्थापित करने पर जोर दिया जाता है।चिकित्सीय ट्रायल अध्ययन शुरू करने से पहले एथिकल कमेटी (आईईसी) द्वारा अनुसंधान के तरीके(प्रोटोकॉल,दवा,जाँचस्थल और जाँचकर्ता,बीमा की जानकारी आदि) का अनुमोदन और पारित किया जाना जरूरी होता है। एथिक कमेटी की जिम्मेदारी ट्रायल की जाँच करते रहना और क्लिनिकल ट्रायल रिसर्च प्रगति की आवधिक समीक्षा करना होता है।

क्लिनिकल ट्रायल की गुणवत्ता बेहतर करने के लिए स्थितियों में बदलाव आ रहा है। आईसीएमआर की ह्यूमन रिसर्च पर एक केंद्रीय आचार समिति- सीईसीएचआर है,जो आईईसी के कामकाज का आडिट करती है।औषधि एवं प्रसाधन सामग्री के अनुसूची वाय में आईसीएमआर दिशा निर्देशों के अनुसार संशोधन किया गया है।

एथिक समिति की संरचना

एथिक (आईईसी) बहुआयामी स्वतंत्र और सक्षम होना चाहिए। एथिक समिति में कम से कम 5-7 सदस्य रखा जाना चाहिये। आम तौर पर न्यूनतम पांच व्यक्ति का एक कोरम स्वीकार किया जाता है। अधिकतम 12-15 सदस्य संख्या की सिफारिश की जाती है। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि बहुत बड़ी समिति ने आम सहमति पहुँचने में मुश्किल होती है। एथिक समिति का सचिव उसी संस्थान के जुडा नहीं होना चाहिए जहाँ ट्रायल किया जा रहा हो। समिति का काम का संचालन अन्य सदस्यों द्वारा ही होना चाहिए। सदस्यों में चिकित्सा / गैर चिकित्सा, वैज्ञानिक और गैर वैज्ञानिक का मिश्रण होना चाहिये। समाज/ समुदाय के सभी वर्गों के कल्याण की रक्षा और हित के लिये इसमें उम्र, लिंग, समुदाय, का पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। सदस्यों को स्थानीय सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंडों के बारे में पता होना चाहिए। एथिक समिति के भिन्न दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित संरचना इस प्रकार हैं: -

1. अध्यक्ष

2. एक या दो मौलिक चिकित्सा वैज्ञानिक (प्राथमिक रूप से एक फारमेकॉलोजिस्ट)

3. अन्य संस्थान से एक या दो चिकित्सक

4. एक कानूनी विशेषज्ञ या सेवानिवृत्त न्यायाधीश

5. एक गैर सरकारी सामाजिक एजेंसी / वैज्ञानिक प्रतिनिधि

6. एक दार्शनिक / थियोलोजिस्ट/ एथिस्ट

7. समाज से एक सामान्य व्यक्ति

8. सदस्य सचिव

लिखित सूचित सहमति क्या है?

क्लिनिकल रिसर्च अध्ययन में भर्ती करने से पहले रोगियों के हितों की रक्षा के लिए, एक लिखित सूचित सहमति आवश्यक है। जीसीपी दिशा निर्देश में सहमति प्रक्रिया के कार्यान्वयन के लिए सूचित प्रलेखन की जरूरत पर जोर दिया गया है। रोगी या रोगी के प्रतिनिधि द्वारा एक लिखित सूचित सहमति अनुबंध है कि वह अनुसंधान में भाग लेने की इच्छा रखते हैं। यह सहमति रोगी को या उसके प्रतिनिधि को उसकी भाषा में समझा कर ली जाती है।इस सहमति के बाद ही अध्ययन किया जा सकता है।हर व्यक्ति को संभावित जोखिम को समझाकर अनुसंधान अध्ययन में शामिल करने के लिए सहमति लिखित रूप में प्रदान करनी चाहिए।

निरक्षरता का स्तर और गरीब रोगी के नामांकन को पूरा करने के लिए प्रायोजकों पर दबाव पड सकता है।जीसीपी दिशानिर्देशों के आधार पर जांचकर्ता और क्लिनिकल रिसर्च स्थल पर अध्ययन दल के सदस्यों द्वारा अध्ययन प्रोटोकॉल का कड़ाई से पालन करने से अध्ययन में प्रतिभागियों के अधिकारों की रक्षा में मदद मिलती है।

रोगी के अधिकार

एक नैदानिक अध्ययन के भागीदार के रूप में और एक शोध अध्ययन के रोगी अधिकार है कि अध्ययन में भाग लेने के लिए निश्चित करें कि आप भाग लें या न लें। रोगी अपने अधिकार पर विचार करें और क्लिनिकल ट्रायल की अवधि में से पहले परिचित होना चाहिए। नामांकन से पहले रोगी संभावित परीक्षण जोखिम,बीमा के बारे में सारी जानकारी लेना चाहिए। अध्ययन की योजना क्या है, यह कब तक पूरा होगा, यह जहां किया जाएगा उसका पता आदि पूरी जानकारी और ट्रायल के बारे में किसी भी प्रकार की शंका,प्रश्न या चिंता की जानकारी लें। रोगी को किसी भी समय अध्ययन दवा के विषय पर सवाल पूछने का अधिकार है। रोगी की सूचना को गोपनीय रखा जाता है। परीक्षण में नामांकन के बाद भी रोगी पूरी तरह स्वैच्छिक होता है। रोगी को अधिकार होता है कि अध्ययन के दौरान किसी भी समय वह इसे छोड सकता है। किसी मजबूरी या पूर्वाग्रह में यह स्वीकृति नहीं दी जाती है।